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– विद्या शंकर विद्यार्थी

 

"आओ खेलने चेतन, बहुत दिन बाद आये हो, गाँव ।" चेतन के साथियों ने उसे दूर से पुकारा।

“नहीं, दादा जी की दवा लेकर जा रहा हूँ, मैं।” उसने इंकार करते हुए कहा।

“अरे भाई, दस मिनट बाद ही जाओगे तो क्या हो जायेगा, उन्हें।”  उसके साथियों ने रोकने की कोशिश की। फिर भी वह नहीं रूका।

“बहुत जल्द आ गये ॽ कहीं ठहर लेते, आराम भी तो जरूरी है, जीवन में।” चेतन के दादा जी ने उसे समझाते हुए कहा।

” सो तो ठीक है दादा जी, लेकिन दवा से आराम कम महत्व रखता है, कहाँ सेहत और कहाँ आराम। यह भी तो समझना हमारे दायित्व में आता है। ऺऺ

चेतने के निर्णय से उसके दादा जी काफी प्रसन्न थे।

” दादा जी, गाँव के मेरे कुछ साथी रोक रहे थे मुझे कि आओ खेलने चेतन।”

” जिसे घर की चिंता होती है उहे पांव में लगी धूल नहीं दिखती। तुम्हारी सोच काफी दूरदर्शी है। तुम्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं।”

 

 

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