– अम्बालिका ‘फूल’
आज दिवस के समापन पर
विचार कुछ व्यक्त करती हूँ;
सूर्य-चन्द्र के मध्य प्रतिपल
निर्वाक् मैं चलती रहती हूँ ।
हृदय कुछ विक्षिप्त – सा
इस बोध से सोया रहता है,
इस अचेतन से युग में
अब कहाँ कोई सच्चा होता है !
दिवस – रात्रि, साँसों में प्रतिक्षण
यह भय समाया बैठा है –
भ्रमित यहाँ मनु की बुद्धि
अनिश्चित विपत्ति की छाया है।
उदित सूर्य भी निशा की गोद में
चिंतित हो समाता है ;
कैसे प्रकाशित करें विश्व को
अँधेरा घनघोर छाया है ।
जीवन है अमृत की धारा
अति सरल यह कथा है ।
प्रेम नहीं क्यों प्राणीमात्र में
अकथित-सी व्यथा है !!
अस्त हो रहे इस दिवस पर
आशाओं की चाँदनी फैली है ;
उदित होगा ‘कल’ क्षितिज में
अस्तित्व अभी मिटा नहीं है ।
बंधु,
राह है अनिश्चित
फिर भी मैं चलती हूँ ;
अँधेरे को प्रतिपल
आशा से प्रकाशित करती हूँ ।।