– विद्या शंकर विद्यार्थी
‘ परनाम सुन्नर चाचा ‘ ढेर दिन बाद सहर से अइला पर रमेश सुन्नर चाचा के पवलगी कइलन त सुन्नर चाचा के लागल हिरदय दरक जाई जीअ कहे में। काहे कि सुखलखे में तीन गो भंईस गाँवे घरे के लोग खोलवा दिहल। जौना में एगो भाग के चल आइल लछिमी अपना खूँटा पर।
‘ जीअ, रमेश. कहिया अइलऽ ह, हमरा के कवनो लोक में लोग नइखे रहे देले बचवा, दूगो खूँटा हमार साफ हो गइल हो।’ सुन्नर चाचा के लोर ना रोकाइल। खूँटा सून भइला के हुके ।
‘ जे तोहरा के डहंकावता से कबो सुख से ना रही चाचा कबो ना,तूँ अपना गमछी के खूँट में गिरह देलऽ। ‘ रमेश लागे एह सांत्वना देबे के अलावा दोसर रहले का रहे।
‘ भादो अइसन अभाव के महीना में ओह लोग के जरूरत के बोरा तोहरे लागे न आवेला चाचा कि तोहार जाला ॽ कुछ सोचऽ चाचा कुछ सोचऽ।’
‘ तूँ ठीक कहताड़ऽ बबुआ ई दुख त अइसे हिला देला हमरा के। बाकि धान के पुआर के गाँज पर मोजर हमरे बन्हाला। ‘ सुन्नर चाचा के बात में बहुत दम रहे।